The Weight of Debt
Madhav Kumar Maurya, 24 | Uttar Pradesh, India
Translated from Hindi
The covid-19 lockdowns in 2020 proved to be a holiday for some people: staying in their homes and spending time with their family members. It was a good time for people who were making a variety of dishes and sharing it with others on their social media. Then there were some clapping from their houses to boost the morale of the Corona warriors. However, the pandemic brought all sorts of troubles for so many people.
Troubles like not being able to get two meals a day, troubles like the inaccessibility of medical treatment to a sick person, troubles like people who work away from their villages, returning home because they have no source of income. I want to talk about those migrant laborers who got imprisoned in their own country in a way. Those who had nothing to eat, did not have enough money to fulfill basic necessities. The lockdown meant that factories were closed overnight without any prior notice, even the owners were clueless about what is going to happen. As a result, the employer could not give money to his employees, and the workers did not have any other earning sources. Meanwhile, the duration of the lockdown kept on increasing which had a direct impact on the poor and working class people. I am still not able to imagine this situation where people had such little access to resources that they were not able to have even a single meal per day sometimes.
When the lockdown was eased a little, many state governments started sending migrant laborers home but the numbers were so large that it was not possible to reach home without the state’s assistance. In such a situation, there was only one way: of walking hundreds of kilometers and to somehow return to their homes.
However, the problems did not end even after reaching home. The migrant workers were realizing that even after returning to their states, their villages, they still needed money to support their family. Any money they had was gone in the commute back home so now there was a shortage of money with no source of income around. The state government was claiming that it was distributing ration to everyone for free. Was the ration really reaching to the needy and was it reaching to them timely?
At such a time, many people from the working class ended up taking money from moneylenders of the village at high interest rates. Probably thinking that the lockdown will get lifted soon and they will get their jobs back. However, as the lockdown’s time span increased so did the interest from moneylenders, which the labourers may not be able to pay, even for the next 2 to 3 years. I am currently in the Pratapgarh district of Uttar Pradesh and I see here people under so much debt that they are forced to take another loan to repay one loan. This is not a normal situation.
On the other hand, workers are now forced to return due to lack of employment, with great difficulty as train schedules are still not normal. In all these troubles, some important questions arise, if the workers get employment in their state, will they go to other places? Probably, in a way the pandemic has brought forth the problems like the unemployment faced by the working class in rural India and the government will realise that this issue still requires a lot of work.
कोरोना काल कुछ लोगो के लिये अपने घरों में रहकर छुट्टी मनाने व अपने परिवार वालो के साथ समय बिताने का एक अच्छा वक्त लाया | जिसमे कोई तरह तरह के पकवान बनाकर अपने सोशल मीडिया में लोगों के साथ साझा कर रहा था, तो कोई अपने घर से ताली बजाकर कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ा रहा था, तो वहीं न जाने कितने लोगो के लिये परेशानी बन गई |
परेशानी भी वो जिस में दो वक्त की रोटी मिलना मुश्किल हो गया, परेशानी वो जिसमे कोई बीमार व्यक्ति शहर जाकर अपना इलाज न करा सके, परेशानी वो जिसमे अपने गांवो से दूर जाकर बाहर मज़्दूरि करने वालों को काम न होने पर घर लौटने की नौबत आ गई। आज हम बात करेंगे उन प्रवासी मजदूरों की जो अपने ही देश मे एक तरह से कैद हो गए थे| जिनके पास न कुछ खाने को था, न पैसे थे जिससे वो राशन खरीद कर अपना गुजारा कर सकें । क्योंकि लॉकिाऊन मे कारखाने भी अचानक से बंद हो गए थे, जिसका पहले से अंदाज़ा न मज़दूरो को था न मालिकों को था। जिसके परिणाम स्वरूप मलिक अपने मज़दूरो को पैसा नही दे पाए, व मज़दूरो के पास दूसरा कोई आर्थिक रूप से साधन नहीं रहा।
इसी बीच लॉकिाउन की अवधी बार– बार बढ रही थी, जिसका सीधा असर गरीब व मज़दूर वर्ग के लोगों पर पड़ रहा था | ईंट भट्टो पर काम करने वाली महिलाएँ, पुरुष, कूड़ा-कचरा इकट्ठा करके बेचने वाले लोग, छोटे-छोटे स्तरों पर फेरी करके जिन्दगी बसर करने वाले लोग तथा वे लोग जो इन सब काम को दूसरे शहरों मे राज्यो मे जाकर करते थे, उनके लिए तो जैसे सब कुछ ख़त्म ही हो गया हो | मैं सोचने में सक्षम नहीं हूँ कि ऐसी भयावह स्थिति में वे लोग कैसे खुद को बचाए रक्खे, व कैसे अपने पेट के भूख को शान्त करते होंगे। फिर समय आया अनलॉक का जिसमे सबसे पहले कई सरकारों ने प्रवासी मजदूरों को घर भेजने का काम शुरू किया |लेकिन मजदूरों की संख्या इतनी ज़्यादा थी कि सरकारी सहायता से घर पहुँच पाना मुमकिन नही था| ऐसे मे सिर्फ एक ही रास्ता था पैदल की सैंकिडो किलोमीटर का रास्ता तय कर किसी तरह अपने घरों को लौटा जाए।
लेकिन घर पहुँचने के बाद भी समस्याएं समाप्त नहीं हुईं थी | जो प्रवासी मज़दूर यह समझ रहे थे की अपने प्रदेश,अपने गाँव लौट जाने से समस्याएँ खत्म हो जाएंगी उन्हे शायद इस बात का अंदाजा नही था की गाँव मे भी पेट पालने के लिये अपना परिवार चलाने के लिए पैसों की आवशयकता होती है |पैसे उनके पास पहले ही समाप्त हो चुके थे। राज्य सरकार दावा तो कर रही थी की सभी को मुफ्त में राशन बाँट रही है | लेकिन क्या राशन सच में ज़रुरतमंदों तक पहुँच रहा था, और क्या उन्हें समय पर मिल रहा था?
ऐसे विपरीत समय मे मज़दूर गांव के किसी साहूकारों से ऊंचे दरो पर पैसे उधर ले रहे थे | इन्हे यह सोच कर लिया गया था की शायद लॉकिाउन जल्द खुल जाएगा और सब पहले जैसा समान्य हो जाएगा|लेकिन अनलॉक एक के बाद एक बढ़ता गया और साथ ही साहूकारों से क़र्ज़ और ब्याज भी बढता गया | जिसे शायद अगले 2 से 3 सालो तक भी अदा नहीं कर पायेंगे | मैं अभी उत्तर प्रदेश केप्रतापगढ़ ज़िले में हूँ | मैने यहां देखा की लोग क़र्ज़ के नीचे इतना दब चुके है की एक क़र्ज़ को चुकाने के लिये दूसरा क़र्ज़ ले रहे हैं|यह कोई समान्य स्थिति तो नही है।
दूसरी तरफ उचित दरो पर रोजगार न मिलने से मज़दूर अब वापस जाने को विवश है | जिसके लिये भी वापस मशक्कत करना पड़ रहा है,क्योंकी ट्रैन अभी भी सामान्य नहीं हुई है | इस सारे दिक्कत और परेशानी मे यही बातें निकाल कर आती हैं की अगर मजदूर वर्ग को अपने शहर, प्रदेश मे रोजगार मिल जाए तो वह दूसरे स्थानों पर प्रवास ही क्यों करेगा? शायद लकड़ाऊन मजदूर वर्ग के रोजगार जैसी समस्याओं को सरकार के सामने लाने का एक ज़रिया बन कर आया जिसपर अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है |